Monday, June 1, 2009

'मैं' को जानने से ही अहंकार से मुक्ति संभव

मैं' के दो रूप होते हैं- एक बाह्य और दूसरा आंतरिक। जब हम कहते हैं कि मैं ये हूं, मैं वो हूं अर्थात अपनी शिक्षा, विशेषता या जीवनवृत्ति को मैं मान लेते हैं तो वह मैं का बाह्य या आरोपित रूप होता है। वह असल में अहंकार है। जब हम कहते हैं कि यह मेरा शरीर है, ये मेरे हाथ हैं तो यह शरीर और हाथ मैं नहीं हैं। जिसका यह शरीर है, जिसके ये हाथ हैं और जो यह सोच रहा है तथा जिसकी वजह से हम अपने मनोभावों को व्यक्त कर पा रहे हैं, वह तो असल में 'मैं' है।


मैं के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए पहले हमें अपने पूरे शरीर का विश्लेषण करना चाहिए। मनुष्य केवल भौतिक शरीर नहीं है। इस भौतिक शरीर में एक मन और एक आत्मा का भी अस्तित्व है। मोटे तौर पर शरीर को तीन कोशों में बांटा गया है: स्थूल शरीर, कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर। यदि स्थूल शरीर ही नहीं होगा तो कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। स्थूल शरीर भौतिक शरीर है, कारण शरीर हमारा मन है और सूक्ष्म शरीर वह सत्ता है, जिसको वास्तव में हमें खोजना है। मन वह सेतु है, जिसका एक छोर भौतिक शरीर की प्रतीति कराता है तो दूसरा छोर सूक्ष्म शरीर अथवा वास्तविक मैं या चेतना अथवा आत्मा की।

जब तक भौतिक शरीर है, मैं की मुक्ति नहीं। यह 'मैं', जब तक शरीर है तब तक विद्यमान रहेगा। यह वास्तविक अहंकार है और यह त्याज्य नहीं है। मैं को जानने के लिए मिथ्या अहंकार और वास्तविक अहंकार में अंतर करना और इन दोनों को अलग-अलग समझना जरूरी है।

मिथ्या अहंकार का अर्थ है इस भौतिक शरीर को आत्मा समझ लेना। जब कोई यह जान जाता है कि मिथ्या अहंकार क्या है और उससे क्या नुकसान हो रहा है तो वह वास्तविक अहंकार को प्राप्त होता है। यही स्वयं को जानना है। इसी को न जानने से सारे क्लेश उत्पन्न होते हैं।

मन अर्थात कारण शरीर की गति दो प्रकार की होती है- आंतरिक और बाह्य। जब मन भौतिक जगत की वस्तुओं की आकांक्षा करता है, तो यह उसकी बाह्य गति है। मन की आंतरिक गति से तात्पर्य है मन का बाह्य जगत की वस्तुओं से मुक्त होकर निविर्कार हो जाना। जैसे-जैसे मन में वस्तुओं की इच्छा कम होती जाती है, संबंधों में रागद्वेष की भावना की समाप्ति होती जाती है और मन आंतरिक यात्रा की ओर उन्मुख होना शुरू हो जाता है। जब तक मन में तनिक भी इच्छा शेष है, वह निविर्कार नहीं हो सकता और विकारयुक्त मन आत्मा में स्थित नहीं हो सकता।

विकारयुक्त होने का अर्थ है मन की बाह्य गति का प्रभावी होना। मन की बाह्य गति को रोकने के लिए योग में वणिर्त पांचवें और छठे अंग प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास अपेक्षित है। प्रत्याहार अर्थात इंदियों के पीछे जो मन काम करता है, उस को खींच लेना। आंखें देखते हुए भी देख न सकें, कान ध्वनि होते हुए भी सुन न सकें- यही विलगाव स्वयं को जानने की प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है।

हम मन को किसी बाह्य बिंदु पर भी केंद्रित कर सकते हैं और आंतरिक जगत में भी, लेकिन मन से छुटकारा नहीं है। मन पर नियंत्रण मन के द्वारा ही संभव है। बाह्य जगत में चेतन मन तथा आंतरिक जगत में अवचेतन तथा अचेतन मन। जब चेतन मन के द्वारा अवचेतन तथा अचेतन मन निर्विकार हो जाता है, तो चेतना का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट होने लगता है। इसी की खोज वास्तविक अहंकार अथवा 'मैं' की खोज है। वास्तविक अहंकार अथवा 'मैं' की खोज होने पर ही मिथ्या अहंकार अथवा मैं की समाप्ति संभव है।